एक ग़ज़ल अपनों के लिए ....
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[1] औरों की ओर ताकते कब तक युं रहोगे ,
'होरी' स्वयं के मध्य से नेता उभारिये |
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[२] गैरों की आरती तो उतारी है अब तलक ,
'होरी' सहोदरों की आरती उतारिये |
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[३] लड़ते रहे हैं आप सदा निज कुटुंब से ,
'होरी' अदावतों को तो, अब तो बिसारिये |
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[४] बीते हैं दिन बहुत, यह शिर नीचे किये हुए,
'होरी' जी अपने आप को, अब तो सम्हारिये |
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[5] आपस की रंजिशों का यह, शैतान जी लिया ,
'होरी' जी इस शैतान का , सर अब उतारिये |
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[६] गैरों के लिए अपनों को मारा है आपने ,
'होरी' इन अपनों को नहीं , अब और मारिये |
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राज कुमार सचान 'होरी'